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"जियें तो जियें कैसे-बिन आपके"

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"जियें तो जियें कैसे-बिन आपके"

दोस्तों अलग अलग साइट पर मैने काफी नामो से बहुत सारी स्टोरी पोस्ट की कई जगह मैंने कोट भी किया वो सभी नेट से ली गई कॉपी पेस्ट वाली स्टोरी थी.
मेरे कुछ दोस्त लंबे समय से कह रहे है के अपनी कहानी लिखो तो आज कोशिस करती हु सायद थोड़ा बहुत लिख सकू.
कुछ मिज़ाज शायराना है कुछ दिल भी टुटा है. सो शेरो शायरी टुटा हुआ दिल जमो मीना के साथ कहानी शुरू कर रही हु.
गलतियों की माफ़ी के साथ आप सभी बड़े लेखकों की तवजो राहनुमाई हौसला अफजाई चाहुगी और कहानी पड़ने वाले सभी पाठकों का प्यार दुलार और आशीर्वाद चाहुगी.


जिंदगी की रह गुजर की एक तन्हा मुसाफिर-सोफिया आलम नकवी (सोफी)"डॉटर ऑफ गंगा".
सोचते सोचते फिर आँखे भर आई बीस साल पुराना मंजर याद आ गया. आह क्या उम्र होती है लड़कपन की. क्या उम्र होती हे सोहळाबरस की दिल मानो आसमान में उड़ता परिंदा, सारी हदो को तोड़ते बेकाबू सपने.
मन की क्या कहो पल में कहो तो आसमान को छू लो तारे तोड़ लाओ चाँद पर घर बना लो. सभी अपने होते हे कोई पराया नही होता जिसको देखो तो दोस्त ही पाओ दुस्मनी रंजिसे क्या होती हे. बुरी बलाए क्या होते हे मन जानता ही नही. आखो में असू तो बस माँ के डांट से आते हे वो भी झूठे, उदासी क्या होती हे, गम क्या होता हे, तन्हाइ क्या होती हे, ये कौन सोचता था उस जमाने में सोलह बरस की उम्र में.आह क्या जमाना था हर लड़का शाहरुख खान और हर लड़की माधुरी दीक्षित समझते थे खुद को.दिन कब गुजर गया रात कब हो गए पता ही नहीं चलता था.हां 1998 वो साल था. मेरा सोलबा सावन का साल.एक से बढ़कर एक क्या खूब फिल्मे आई थी एक से बढ़कर एक क्या खूब गाने आए थे.


"तुम पास आये, यूँ मुस्कुराये

तुमने न जाने क्या सपने दिखाये

अब तो मेरा दिल, जागे न सोता है 

क्या करूँ हाय, कुछ कुछ होता है"

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