बस वाली लड़की पट गई
इस कहानी का लेखक मैं नहीं हूं. मैंने इसमें केवल कुछ संशोधन किये हैं. तो प्रस्तुत है
धीरज की आँख खुलीं, तो सामने टँगे हुए कैलेंडर ने एक परंपरागत पड़ोसी की तरह मौका मिलते ही सच्चाई का ज्ञान करा देने के अंदाज़ में उसे आज की तारीख़ बता दी और बड़ी ही बेरहमी से उन २५ साल, १० महीने, १२ दिनों का एहसास भी करा दिया जो धीरज ने इस धीरज के साथ बिताए थे कि धीरज का फल मीठा होता है। ठीक एक महीना पहले पूरे हुए एम.बी.ए. के एक महीने बाद आज २६ अप्रैल, २००९ को भी उसका जीवन उतना ही खाली था जितना एम.बी.ए. में प्रवेश लेते समय या उससे पहले के किसी भी पल।
बढ़िया सेंस आफ ह्यूमर, ठीक-ठाक शक्ल, औसत कद, अति-औसत वज़न, गेहुँआ रंग, काम चलाऊ बुद्धि और अनावश्यक रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाली एक बड़ी-सी नाक वाले धीरज ने लड़कियों को उनकी उस पसंद के लिए अक्सर कोसा था जिसके अंतर्गत वह लड़कियों को कभी पसंद नहीं आया था। यों पसंद वह लड़कों को भी कुछ ख़ास न था पर इसका उसे कुछ अफ़सोस न था।
सच्चाई से मुँह फेरने की ख़ातिर धीरज ने करवट बदली तो बगल की दीवार पर टँगी घड़ी ने उसे उस दिन के दूसरे सच से अवगत करा दिया। ७.३० बज चुके थे और ८.०० बजे की बस पकड़ने के लिए उसके पास सिर्फ़ आधा घंटा था जो यों तो नाकाफी था पर सुबह के कुछ ज़रूरी कामों से जान चुराने का अच्छा बहाना बन सकता था जिनमें धीरज की कुछ ख़ास रुचि नहीं थी।
मन मारकर उसने बिस्तर छोड़ा, टेढ़ी-मेढ़ी अंगड़ाइयाँ लीं और जैसे-तैसे अपने को बाहर जाने लायक स्थिति में लाने के लिए बाथरूम की ओर चल दिया। बाहर आया तो भाभी पहले ही चाय तैयार कर चुकीं थीं। धीरज ने एक पल घड़ी को देखा, दिमाग में कुछ हिसाब लगाया और चाय पीने बैठ गया। मरीन इंजिनीयरिंग की तथाकथित पैरा-मिलैट्री स्टाइल ट्रेनिंग ने उसे और कुछ भले ही न सिखाया हो पर फटाफट तैयार होना ज़रूर सिखा दिया था। ऐसे भी, मरीन इंजिनीयरिंग में, इससे ज़्यादा सीखने की ज़रूरत भी नहीं होती। धीरज ने उन चारों सालों की पढ़ाई को मन ही मन धन्यवाद दिया जिसके कारण वह आज लेट होने के बाद भी इत्मिनान से बस पकड़ सकता था।
इसी अत्यधिक आत्मविश्वास के चलते उसने आराम से चाय पी, फैलकर 'डेली टाइम्स' की रंगीनियत में झाँका और भैया के कार से बस स्टैण्ड पर ड्रॉप कर देने के प्रस्ताव को भी सर हिला कर ना कर दिया। इसका उसे बाद में अफ़सोस भी हुआ क्योंकि भैया ने उसके इंकार को गंभीरता से ले लिया और दुबारा पूछा ही नहीं। धीरज महाराज भी तैश में आ गए और मन पक्का कर पैदल ही बस स्टैण्ड की तरफ़ चल पड़े।
बस स्टैण्ड ज़्यादा दूर तो नहीं था पर पैदल पहुँचने में कुछ समय तो लगता है। धीरज ने फिर से हिसाब लगाया तो मामला अब समया-सीमा पर पहुँचा था। कदमों में अपने आप ही कुछ तेज़ी-सी आ गई। दूर से ही उसने बस स्टॉप पर खड़ी बस को स्पॉट कर लिया और बस पकड़ने के लिये पूरी ताकत से दौड़ लगा दी। भाग कर बस पकड़ने में धीरज उस्ताद था ही। हालाँकि इस बार बस को भाग कर पकड़ने का कुछ खास फायदा उसे नहीं हुआ क्योंकि ट्रैफिक जाम में फँसे होने के कारण बस काफी देर वहीं खड़ी रही।
फूले हुए साँस के साथ धीरज अंदर घुसा और घुसते ही पैनी निगाहों से अंदर का तेज़ी से मुआयना किया। सबसे पीछे, खिड़की की सीट पर बैठी लड़की के बराबर में एक सीट खाली थी। लड़की कुछ ख़ास नहीं थी पर लड़की थी जो धीरज के लिए काफी था। यों सीटें और भी एक-दो खाली थीं पर धीरज ने, स्वाभाविक रूप से, वहीं बैठने का फ़ैसला किया और मौका कहीं मिस ना हो जाए इस डर से तुरंत सीट की ओर लपक लिया।
इस कहानी का लेखक मैं नहीं हूं. मैंने इसमें केवल कुछ संशोधन किये हैं. तो प्रस्तुत है
धीरज की आँख खुलीं, तो सामने टँगे हुए कैलेंडर ने एक परंपरागत पड़ोसी की तरह मौका मिलते ही सच्चाई का ज्ञान करा देने के अंदाज़ में उसे आज की तारीख़ बता दी और बड़ी ही बेरहमी से उन २५ साल, १० महीने, १२ दिनों का एहसास भी करा दिया जो धीरज ने इस धीरज के साथ बिताए थे कि धीरज का फल मीठा होता है। ठीक एक महीना पहले पूरे हुए एम.बी.ए. के एक महीने बाद आज २६ अप्रैल, २००९ को भी उसका जीवन उतना ही खाली था जितना एम.बी.ए. में प्रवेश लेते समय या उससे पहले के किसी भी पल।
बढ़िया सेंस आफ ह्यूमर, ठीक-ठाक शक्ल, औसत कद, अति-औसत वज़न, गेहुँआ रंग, काम चलाऊ बुद्धि और अनावश्यक रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाली एक बड़ी-सी नाक वाले धीरज ने लड़कियों को उनकी उस पसंद के लिए अक्सर कोसा था जिसके अंतर्गत वह लड़कियों को कभी पसंद नहीं आया था। यों पसंद वह लड़कों को भी कुछ ख़ास न था पर इसका उसे कुछ अफ़सोस न था।
सच्चाई से मुँह फेरने की ख़ातिर धीरज ने करवट बदली तो बगल की दीवार पर टँगी घड़ी ने उसे उस दिन के दूसरे सच से अवगत करा दिया। ७.३० बज चुके थे और ८.०० बजे की बस पकड़ने के लिए उसके पास सिर्फ़ आधा घंटा था जो यों तो नाकाफी था पर सुबह के कुछ ज़रूरी कामों से जान चुराने का अच्छा बहाना बन सकता था जिनमें धीरज की कुछ ख़ास रुचि नहीं थी।
मन मारकर उसने बिस्तर छोड़ा, टेढ़ी-मेढ़ी अंगड़ाइयाँ लीं और जैसे-तैसे अपने को बाहर जाने लायक स्थिति में लाने के लिए बाथरूम की ओर चल दिया। बाहर आया तो भाभी पहले ही चाय तैयार कर चुकीं थीं। धीरज ने एक पल घड़ी को देखा, दिमाग में कुछ हिसाब लगाया और चाय पीने बैठ गया। मरीन इंजिनीयरिंग की तथाकथित पैरा-मिलैट्री स्टाइल ट्रेनिंग ने उसे और कुछ भले ही न सिखाया हो पर फटाफट तैयार होना ज़रूर सिखा दिया था। ऐसे भी, मरीन इंजिनीयरिंग में, इससे ज़्यादा सीखने की ज़रूरत भी नहीं होती। धीरज ने उन चारों सालों की पढ़ाई को मन ही मन धन्यवाद दिया जिसके कारण वह आज लेट होने के बाद भी इत्मिनान से बस पकड़ सकता था।
इसी अत्यधिक आत्मविश्वास के चलते उसने आराम से चाय पी, फैलकर 'डेली टाइम्स' की रंगीनियत में झाँका और भैया के कार से बस स्टैण्ड पर ड्रॉप कर देने के प्रस्ताव को भी सर हिला कर ना कर दिया। इसका उसे बाद में अफ़सोस भी हुआ क्योंकि भैया ने उसके इंकार को गंभीरता से ले लिया और दुबारा पूछा ही नहीं। धीरज महाराज भी तैश में आ गए और मन पक्का कर पैदल ही बस स्टैण्ड की तरफ़ चल पड़े।
बस स्टैण्ड ज़्यादा दूर तो नहीं था पर पैदल पहुँचने में कुछ समय तो लगता है। धीरज ने फिर से हिसाब लगाया तो मामला अब समया-सीमा पर पहुँचा था। कदमों में अपने आप ही कुछ तेज़ी-सी आ गई। दूर से ही उसने बस स्टॉप पर खड़ी बस को स्पॉट कर लिया और बस पकड़ने के लिये पूरी ताकत से दौड़ लगा दी। भाग कर बस पकड़ने में धीरज उस्ताद था ही। हालाँकि इस बार बस को भाग कर पकड़ने का कुछ खास फायदा उसे नहीं हुआ क्योंकि ट्रैफिक जाम में फँसे होने के कारण बस काफी देर वहीं खड़ी रही।
फूले हुए साँस के साथ धीरज अंदर घुसा और घुसते ही पैनी निगाहों से अंदर का तेज़ी से मुआयना किया। सबसे पीछे, खिड़की की सीट पर बैठी लड़की के बराबर में एक सीट खाली थी। लड़की कुछ ख़ास नहीं थी पर लड़की थी जो धीरज के लिए काफी था। यों सीटें और भी एक-दो खाली थीं पर धीरज ने, स्वाभाविक रूप से, वहीं बैठने का फ़ैसला किया और मौका कहीं मिस ना हो जाए इस डर से तुरंत सीट की ओर लपक लिया।