जवानी बड़ी हरामी
इस कहानी का लेखक मैं नहीं हूं. मैंने इसमें केवल कुछ संशोधन किये हैं. तो प्रस्तुत है
यह उस ज़माने की बात है जब समुद्र यात्रा को अत्यंत खतरनाक माना जाता था और धनी लोगों व्यापारियों और साहसी लोगों के लिए ही उपयुक्त माना जाता था .खतरे कई तरह से आते थे जिनका अनुमान लगाना भी करीब करीब नामुमकिन था .मौसम का पूर्वानुमान लगाना न केवल दुसाध्य था बल्कि मौसम की जानकारी हासिल करने के उपकरणों के अभाव में जानकारी ही नहीं हो पाती थी.उष्णकटिबंधीय तूफान के उठने और आगे बढ़ने के बारे में जानकारी देने की व्यवस्था अपनी शैशवावस्था में थी जिससे शायद ही कभी किसी को चेतावनी मिली थी।
प्रशांत क्षेत्र में यह दो मस्तूलो वाला व्यापारी जहाज ,एक घातक समुद्री तूफ़ान में फंस गया और तूफ़ान की उत्ताल लहरों द्वारा घन्टो बुरी तरह से उछाला और पटका जाता रहा .दस दिन पूर्व सैन फ्रानिसको से चलने से पूर्व किसी को ऐसे तूफ़ान की सूचना तक न थी . तूफ़ान इतना घटक और विनाशकारी था की यदि किसी प्रकार से चालक दल को टेलीग्राम से सूचना मिल जाती तो भी इस भयावह और विनाश कारी तूफ़ान से जहाज को बचाना करीब करीब नामुमकिन था .जहाज निकटतम गहरे समुद्री बंदरगाह से हजारो किमी दूर खुले प्रशात महासागर में आगे फिलीपीन्स की ओर बढ़ रहा था यद्यपि उसकी गति काफी अच्छी थी पर तूफ़ान की तुलना में कुछ भी नहीं थीl
किसे पता था कि आकाश में होने वाली हलचल इतना विकराल रूप धारण कर लेगी। जल में उठने वाली लघु -लहरियाँ कुछ ही समय में अन्धकार आँधियो में घिर कर बिजलियाँ नर्तन करेंगी और ज्वालामुखी के सामान भीषण विष्फोट से उद्वेलित सागर को कम्पायमान कर सब कुछ विस्मृति के गर्भ में विलीन हो जाएगा। सागर के इस मदमत्त रूप की कल्पना करना भी संभव नहीं था।
इस प्रलय जलधि में वह पोत सिंधु की गरजती लहरियों पर सवार मदमत्त हाथी के सामान उन फें उगलती लहरों से लोहा ले रहा था। पर कब तक यह क्रीड़ा चलने वाली थी ?
लहरे अठखेलिया करती व्योम को चूम रही थी और तड़ित -जांझवात से उठाने वाली चपलाये मानो नाच कर रही थी और उनसे उठने वाली ज्वालायें आकाश से सीधी झड़ी से शांत हो उस विशाल जलधि में विलीन हो रही थीं सागर के जलचर उस विकल सागर से निकलते और उतरा कर पुनः उसी में समा जाते थे। और जीवन की इस मृग -मरीचिका में , क्रुद्ध सिंधु की तरंगाघातो की मार से आहात किसी बड़े कछुए के सामान डूबता -उतरता इस निर्जन टापू के किनारे आ लगा था।
चालीस वर्ष की आयु की माँ से मिलने उसका पुत्र उसका पुत्र आने वाला था । परिस्थितियों वश कई वर्षो पूर्व से वह अपने पिता के साथ रह रहा था । उसका विवाह -विच्छेद अपने पति से कई वर्ष पहले हो चुका था फिर भी यह एक डोर उन्हें बांधे थी जिसके चलते यद्यपि दोंनो आलग हो चुके थे किन्तु फिर भी जली हुई रस्सी के तरह उनके बीच शायद कुछ बाकी था जिसके चलते ही शायद उनका बेटा अपनी माँ से मिलने आया था और पिता ने माँ -बेटे के लिए लिए घूमने की व्यवस्था के तहत इस दो मस्तूल वाले जहाज में व्यवस्था की थी । जिससे उनके रिश्ते सामान्य रहे और माँ -बेटे को किसी प्रकार से अपने बीच किसी प्रकार की कमी न महसूस हो ।
इस कहानी का लेखक मैं नहीं हूं. मैंने इसमें केवल कुछ संशोधन किये हैं. तो प्रस्तुत है
यह उस ज़माने की बात है जब समुद्र यात्रा को अत्यंत खतरनाक माना जाता था और धनी लोगों व्यापारियों और साहसी लोगों के लिए ही उपयुक्त माना जाता था .खतरे कई तरह से आते थे जिनका अनुमान लगाना भी करीब करीब नामुमकिन था .मौसम का पूर्वानुमान लगाना न केवल दुसाध्य था बल्कि मौसम की जानकारी हासिल करने के उपकरणों के अभाव में जानकारी ही नहीं हो पाती थी.उष्णकटिबंधीय तूफान के उठने और आगे बढ़ने के बारे में जानकारी देने की व्यवस्था अपनी शैशवावस्था में थी जिससे शायद ही कभी किसी को चेतावनी मिली थी।
प्रशांत क्षेत्र में यह दो मस्तूलो वाला व्यापारी जहाज ,एक घातक समुद्री तूफ़ान में फंस गया और तूफ़ान की उत्ताल लहरों द्वारा घन्टो बुरी तरह से उछाला और पटका जाता रहा .दस दिन पूर्व सैन फ्रानिसको से चलने से पूर्व किसी को ऐसे तूफ़ान की सूचना तक न थी . तूफ़ान इतना घटक और विनाशकारी था की यदि किसी प्रकार से चालक दल को टेलीग्राम से सूचना मिल जाती तो भी इस भयावह और विनाश कारी तूफ़ान से जहाज को बचाना करीब करीब नामुमकिन था .जहाज निकटतम गहरे समुद्री बंदरगाह से हजारो किमी दूर खुले प्रशात महासागर में आगे फिलीपीन्स की ओर बढ़ रहा था यद्यपि उसकी गति काफी अच्छी थी पर तूफ़ान की तुलना में कुछ भी नहीं थीl
किसे पता था कि आकाश में होने वाली हलचल इतना विकराल रूप धारण कर लेगी। जल में उठने वाली लघु -लहरियाँ कुछ ही समय में अन्धकार आँधियो में घिर कर बिजलियाँ नर्तन करेंगी और ज्वालामुखी के सामान भीषण विष्फोट से उद्वेलित सागर को कम्पायमान कर सब कुछ विस्मृति के गर्भ में विलीन हो जाएगा। सागर के इस मदमत्त रूप की कल्पना करना भी संभव नहीं था।
इस प्रलय जलधि में वह पोत सिंधु की गरजती लहरियों पर सवार मदमत्त हाथी के सामान उन फें उगलती लहरों से लोहा ले रहा था। पर कब तक यह क्रीड़ा चलने वाली थी ?
लहरे अठखेलिया करती व्योम को चूम रही थी और तड़ित -जांझवात से उठाने वाली चपलाये मानो नाच कर रही थी और उनसे उठने वाली ज्वालायें आकाश से सीधी झड़ी से शांत हो उस विशाल जलधि में विलीन हो रही थीं सागर के जलचर उस विकल सागर से निकलते और उतरा कर पुनः उसी में समा जाते थे। और जीवन की इस मृग -मरीचिका में , क्रुद्ध सिंधु की तरंगाघातो की मार से आहात किसी बड़े कछुए के सामान डूबता -उतरता इस निर्जन टापू के किनारे आ लगा था।
चालीस वर्ष की आयु की माँ से मिलने उसका पुत्र उसका पुत्र आने वाला था । परिस्थितियों वश कई वर्षो पूर्व से वह अपने पिता के साथ रह रहा था । उसका विवाह -विच्छेद अपने पति से कई वर्ष पहले हो चुका था फिर भी यह एक डोर उन्हें बांधे थी जिसके चलते यद्यपि दोंनो आलग हो चुके थे किन्तु फिर भी जली हुई रस्सी के तरह उनके बीच शायद कुछ बाकी था जिसके चलते ही शायद उनका बेटा अपनी माँ से मिलने आया था और पिता ने माँ -बेटे के लिए लिए घूमने की व्यवस्था के तहत इस दो मस्तूल वाले जहाज में व्यवस्था की थी । जिससे उनके रिश्ते सामान्य रहे और माँ -बेटे को किसी प्रकार से अपने बीच किसी प्रकार की कमी न महसूस हो ।